
सीतापुर। खैराबाद कस्बा पूरे अवध क्षेत्र में अपनी अलग पहचान रखता है। अपने काव्यात्मक माहौल और प्राचीनता के साथ-साथ खैराबाद का हथकरघा उद्योग और दरी उद्योग विश्वप्रसिद्ध है। यहां की दरियां अपनी क्वालिटी और कलात्मकता की वजह से विदेशों तक सप्लाई होती हैं। इन सबके बावजूद खैराबाद सबसे ज्यादा अगर किसी चीज के लिए मशहूर है तो वह है यहां का इमामबाड़ा। मक्का दर्जी के नाम से मशहूर इस इमामबाड़े के साथ खैराबाद का दिलचस्प इतिहास जुड़ा हुआ है। खैराबाद कस्बा ऐतिहासिक तौर पर लगभग 11 सौ साल पुराना है। लखनऊ से 80 किमी और सीतापुर से 8 किमी दूर खैराबाद कस्बा इस जनपद के तीन सबसे पुराने आबाद कस्बों में से एक है। किंवदंतियां ये भी हैं कि इसकी नींव खैरा पासी ने डाली थी और एक समय यहां पासी राज करते थे। पासियों को खदेड़कर अहिबन राजपूतों ने यहां पर कब्जा कर लिया जो खैराबाद से 40 किमी दूर उनसिया क्षेत्र पर राज करते थे। 1527ई. में बाबर ने यहां पर कब्जा कर लिया और मोहम्मद शाह को यहां का शासक बना दिया। शेरशाह सूरी ने भी यहां पर कुछ समय तक शासन किया। बाद में अकबर ने खैराबाद को जीतकर इस्कंदर खां को यहां का नाजिम (गर्वनर) नियुक्त कर दिया। मुगलों का यहां पर 300 साल से अधिक समय तक शासन रहा। मुगलों ने अवध का शासन सुचारु रूप से चलाने के लिए सहायक नियुक्त कर दिये, जिन्हें उस समय नायब कहा जाता था। नायब को धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा में नवाब कहा
जाने लगा। खैराबाद नवाबी काल में इलाके का बहुत बड़ा बाजार था। यहां पर कश्मीरी शाल, अंग्रेजी जेवरात, घोड़ा बाजार और हाथी बाजार भी था जिसके लिए दूर-दूर से लोग आते थे।
इमामबाड़ा बनने की दिलचस्प कहानी-
नवाब आसिफुद्दौला को उनके एक यूरोपियन मित्र ने बहुत ही कीमती कपड़ा तोहफे में दिया। नवाब साहब को इस कपड़े से शेरवानी सिलवाने की ख्वाहिश हुई। कपड़े में बीचोंबीच एक खूबसूरत कढ़ा हुआ गुलाब का फूल था और नवाब साहब चाहते थे कि शेरवानी ऐसी सिली जाए कि गुलाब का फूल उनके सीने पर दिल के पास आए कपड़े की कम नाप के हिसाब से गुलाब का सीने पर आना नामुमकिन था। उस समय के कई मशहूर दर्जियों ने नवाब साहब के मनमुताबिक शेरवानी सिलने से इन्कार कर दिया। तब खैराबाद में दरोगा के पद पर काम कर रहे मक्का जो दर्जी जाति के थे, उन्होंने कपड़ा देखा और नवाब साहब की इच्छानुसार शेरवानी सिल कर खिदमत में पेश कर दी, जिसमें गुलाब ठीक सीने पर आया। यही नहीं मक्का दर्जी ने उसमें से कपड़ा बचाकर एक खूबसूरत टोपी भी सिलकर नवाब साहब काे भेंट की। मक्का दर्जी की इस कारीगरी से नवाब आसिफुद्दौला बहुत खुश हुए और मक्का दर्जी को ‘जमादार’ की उपाधि से नवाजा और कोई उपहार मांगने के लिए कहा। मक्का दर्जी ने लखनऊ में स्थित इमामबाड़े की तरह ही खैराबाद में भी एक इमामबाड़ा बनवाने की मांग कर दी। जिसके बाद नवाब आसिफुद्दौला ने खैराबाद में एक भव्य और बेहद खूबसूरत इमामबाड़े का निर्माण करवाया। इसके साथ ही पैगम्बर मोहम्मद साहब की याद में कदम रसूल और एक मस्जिद भी बनवाई। कदम रसूल के बारे में कहा जाता है कि इसके निर्माण में मोहम्मद साहब के पदचिन्हों की मिट्टी भी शामिल की गई जिसके हौज मेें भरे जल को श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा के साथ पीते हैं। पूरा इमामबाड़ा परिसर अपनी अप्रतिम और अद्भुत वास्तुकला की वजह से विश्वप्रसिद्ध है। खैराबाद दर्पण के लेखक लियाकत अली बताते हैं कि वर्तमान समय में खैराबाद के तुर्कपट्टी मोहल्ले में स्थित इमामबाड़ा काॅम्प्लेक्स 133983 वर्गफिट में बना हुआ है, जिसका निर्माण 1776 में शुरू हुआ। इसके निर्माण में लगभग 12 साल लगे। इमामबाड़े के मुख्य द्वारपर हरे रंग की मेहराबाें की पंक्ति बनी है जो देखने में बेहद खूबसूरत लगती है। इसकी छत और दीवारों पर बनी नक्काशियां इमारत की खूबसूरती को और बढ़ा देती हैं। इसमें एक भूलभुलैया भी बनी है जो कभी सुरंगाें के रास्ते सीधे लखनऊ से जुड़ी थी। हालांकि अब भूलभुलैया को बंद कर दिया गया है।
मक्का दर्जी, एक महान शख्सियत-
मक्का दर्जी को इतिहास सिर्फ एक काबिल दर्जी के तौर पर याद करता है, जिसने नवाब साहब की शेरवानी सिली थी। मगर इसके इतर भी उनकी शख्सियत के कई आयाम थे। खैराबाद में अजादारी (ताजियेदारी) शुरू करवाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इमामबाड़े के निर्माण के बाद यहां अजादारी ने काफी जोर पकड़ा। मशहूर बावन डंडे के ताजियों की शुरूआत भी यहीं से मानी जाती है। इसके अलावा उन्होंने बख्शी का तालाब में एक खूबसूरत तालाब का निर्माण भी करवाया था।
मक्का जाति से तो सिर्फ एक दर्जी थे लेकिन उनमें एक महान फैशन डिजाइनर की खूबी भी थी। पूरे राज्य में वो एकमात्र शख्स थे, जो नवाब साहब की लेटेस्ट यूरोपियन पोशाकों को पहनने की इच्छा को पूरा कर पाते थे। हर पोशाक को सिलने से पहले वो इसकी पड़ताल जरूर करते थे कि कौन इस पोशाक को किस अवसर पर पहनेगा। पाेशाक पर काम शुरू करने से पहले वो मैटेरियल, कलर, पैटर्न, डिजाइन आदि पर बारीकी से रिसर्च करते थे। मक्का की काबिलियत ने शाही दरबार में उनके दुश्मन भी खूब बनाए, जो नवाब साहब के कान भरने लगे और उन्हें दरबार से बर्खास्त करवाकर वापस खैराबाद भिजवा दिया। यहीं उनकी मृत्यु हो गई। इमामबाड़ा परिसर में ही उनकी कब्र बनी है।
वर्तमान में इमामबाड़े की स्थिति-
इमामबाड़ा देखरेख के अभाव में बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया है। लगातार जर्जर हो रही इमारत के देखरेख की कोई व्यवस्था नहीं है। लोगों ने इस पर कब्जा कर लिया है और इसमें रहने लगे हैं। कोई सरकारी संस्था इमामबाड़े की देखरेख नहीं कर रही। अजादारी का विश्व में महत्वपूर्ण स्थल लखनऊ यहां से बहुत दूर नहीं है मगर लखनऊ के अजादारों ने कभी यहां आकर मक्का दर्जी की विरासत को संभालकर आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की।
सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोग बताते हैं कि इमामबाड़ेे को संरक्षित स्मारक घोषित करवाने के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग से पत्र व्यवहार लगातार जारी है। कई लाेग इस पर अपनी दावेदारी कर रहे हैं इसलिए ये जरूरी है कि पुरातत्व विभाग जल्द से जल्देेेे इसको अपने कब्जे में लेकर संरक्षित स्मारक घोषित करे।
——————–